वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में देश में अधिकांशतः केवल एक ही राज्य पर चर्चा होती है, वो है उत्तर प्रदेश। होना भी चाहिए। देश के सबसे बड़ा राज्य में चुनाव। उस पर सत्तासीन सरकार में घमासान। कहां गया महागठबंधन का फॉर्मूला ? यानि जहां योजना बननी चाहिए, वहां मतभेद, वो भी मीडिया में प्राइम टाइम और अखबार की लीड स्टोरी में। तो क्या यह भी चुनावी तैयारी का ही एक सुनियोजित हिस्सा है ? इसे क्रम से समझना ज़रूरी है। 2016 के मध्यम से चुनावी सुगबुगाहट शुरू होते ही समाजवादी पार्टी का अंदरूनी कलह बाहर आने लगा। पहले लोगों के मुंह पर अक्सर सुनने को मिलता था कि यह नौटंकी है। फिर बीच-बीच में कुछ ठीक, फिर कुछ खराब… इस बीच उत्तर प्रदेश में महागठबंधन पर बातें हुईं, जिसकी प्रबल संभावना थी, क्योंकि राजनीति के बड़े मठाधीश नेताजी को ये कहकर लगातार आगाह कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश की जनता में आपके प्रति असंतोष है। अपराध बढ़ा है और विकास दूर है। तो वहीं बीते बिहार विधान सभा चुनाव में महागठबंधन के सफल प्रयोग को यूपी में दोहराने पर भी बातें चल रही थीं, जिसके सूत्रधार नेताजी की ही टीम थी। महागठबंधन के लिए सपा नेता शिवपाल यादव ने महागठबंधन बनाने की पहल करते हुए जेडीयू और राष्ट्रीय लोकदल के नेताओं के साथ बात शुरू की। इसके लिए दिल्ली में केसी त्यागी और अजित सिंह से मुलाकात भी की। इस मीटिंग में कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी मौजूद थे। सभी दलों ने महागठबंधन के प्रति अपना सकारात्मक रूख दिखाया। साथ ही शिवपाल यादव ने इन नेताओं को 5 नवंबर को एसपी के होने वाले समारोह में आने का न्योता भी दे दिया। इन समान विचारधारा वाले नेताओं की अपेक्षा की थी कि औपचारिक तौर पर बात शुरू होने के बाद मुलायम सिंह यादव खुद दूसरे दलों के नेता से बात करेंगे। लेकिन उत्तर प्रदेश में महागठबंधन बनने से पहले उस संशय के बादल छाने लगे, जब 5 नवंबर के इस कार्यक्रम में कांग्रेस के साथ जेडीयू की भी अनुपस्थिति की संभावना गहरा गई। उसका सबसे बड़ा कारण ये भी था कि प्रशांत किशोर की ऊंगलियों पर नाच रही यूपी कांग्रेस को ग्रीम सिग्नल नहीं मिला तो वहीं जेडीयू इसलिए खामोश हुई क्योंकि बिहार में महागठबंधन के वक्त इसी तरह मुलायम सिंह ने ऐन वक्त पर हाथ खींचा था। मगर मुलायम सिंह योदव को ये समझते देर न लगी और उन्होंने महागठबंधन पर ही चुप्पी साध ली।
राजनीतिक पंडित इस इंतज़ार में थे कि अगला कदम नेताजी का क्या होगा। इतने में 8 नवंबर 2016 को देश में इतना बड़ा फैसला आया, जिसने पैसे के दम पर सत्ता हथिया रहे नेताओं को संशय में डाल दिया। पैसा बिना सारे दिमाग फेल थे। जहां पूरा देश प्रधानमंत्री से फैसले की सराहना कर रहा था, वहीं यूपी में समाजवादी पार्टी में नीचे से ऊपर तक असंतोष अलग था, पार्टी (सपा) से जनता अलग परेशान। सपाइयों के पांच वर्ष मजे में ऐसे कटे कि जनता की सुध-बुध का पता ही नहीं चला… नेताजी इस बात को समझ रहे थे कि सपा के साइकिल की यूपी चुनाव की बैतरनी उन्हें अकेले ही पार करानी होगी, क्योंकि नोटबंदी के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की और बढ़ती लोकप्रियता को रोकना मुश्किल था, जो सीधे यूपी में सरकार बनने की ओर इशारा कर रही थी। इतने में 2 जनवरी 2017 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उत्तर प्रदेश में महारैली की तैयारी के बीच मीडिया में खबर आई कि पीएम यूपी के हित में कुछ घोषणाएं कर सकते हैं। नेताजी ने आनन-फानन में पहले की सफल पटकथा को ही आगे बढ़ा दिया। उन्हें पता था कि पीएम की वो महारैली अगर असफल हो जाए, भीड़ न जुटे तो उनका (सपा का) रास्ता साफ हो सकता है। इस लेकर उन्होंने जबरदस्त मीडिया कवरेज की तैयारी की। पहले मुलायम सिंह ने 325 टिकटार्थियों की लिस्ट जारी की। बेटे 53 मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया। साथ ही अखिलेश के चहेते 107 लोगों का नाम ही नहीं दिया। फिर अखिलेश ने जवाब में लिस्ट जारी की। (जबकि अखिलेश चाहते तो उनसे जाकर बातचीत कर सकते थे) अखिलेश के पक्ष में भावना बढ़ाने के लिए उसे ही पार्टी से बाहर कर दिया। (जबकि पिता-पुत्र में इतनी तो भाववश लगाव होगा कि बातचीत की गुंजाइश हो, लेकिन सब बातें हवा में)। राजनीतिक पंडित भी मीडिया की हायतौबा को देख यह भूल गए कि यह वही नेताजी हैं जिन्होंने 14 वर्ष की उम्र से राजनीति शुरू की थी। ढेरों राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकारों को बनाया और गिराया। लेकिन प्रधानमंत्री की रैली में केवल 10 लाख से अधिक कार्यकर्ता आए, जिसने नेताजी को और भी सोचने पर विवश कर दिया। इस बीच सर्वे भी करा लिया जाता है जिसमें सपा कार्यकर्ताओं में अखिलेश यादव को सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता बताया गया। सर्वे के मुताबिक सपा के 83 फीसदी वोटर अखिलेश को मुख्यमंत्री का पसंद बताया, जबकि सिर्फ 6 फीसदी मुलायम को सीएम देखना पसंद बताया गया। बताया गया कि रामगोपाल यादव सीएम के रूप में महज 2 फीसदी सपा वोटरों की पसंद हैं। लेकिन वह यह भूल कर बैठे कि ये वही अखिलेश हैं जो अपने स्थानीय अभिभावक शांति प्रकाश मिश्र और उनके परिवार के प्रति कृतज्ञ रहते हैं कि धौलपुर में उनकी देखभाल की। और ये वही उनके पिता मुलायम सिंह यादव हैं जिन्होंने 90 के दशक के मध्य में उन्हीं शांति प्रकाश मिश्रा को उनकी सेवानिवृति के बाद सैफई में एक सीबीएसई स्कूल का निदेशक नियुक्त कर दिया। (‘अखिलेश यादव: बदलाव की लहर’ पुस्तक में इस बात का जिक्र है)। कहने का मतलब है कि मुलायम सिंह यादव और बेटे अखिलेश के बीच इमोशनल को-ऑर्डिनेशन गजब की है। ज़रा सोचिए, अपने पुत्र को बाहर निकालने वही वक्त क्यों चुना जब उसके ठीक दो दिन बाद प्रधानमंत्री की रैली थी? जहां एक ओर पूरा उत्तर प्रदेश चुनावी नीति में लगा है, वहीं ये पिता-पुत्र चुनाव आयोग के चक्करें काट रहे हैं, क्या वजह है ? आगे की पटकथा भी तैयार होगी। हो न हो, पार्टी (सपा) की सच में दो फाड़ हो जाए। कुछ को अखिलेश के खेमे से टिकट मिल जाए, तो कुछ को मुलायम खेमे से। योजना हो कि यूपी से भावना बटोरकर जीत के बाद फिर से एक मंच से अखिलेश को हीरो (मुख्यमंत्री) बना दिया जाए। इसलिए कि सपा में और सपा से कोई खुश नहीं है। इसलिए सपा का हर सपना अब सपना ही रहेगा।
भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने सही कहा कि उत्तर प्रदेश में साढ़े तीन मुख्यमंत्री काम कर रहे हैं। उन्होंने एक रैली में कहा था कि यूपी में दो चाचा मिलकर एक मुख्यमंत्री, एक अखिलेश खुद हैं, तीसरे नेताजी मुलायम सिंह यादव और आधे मुख्यमंत्री आजम खान हैं। साढे तीन मुख्यमंत्री जहां शासन करते हों, उस प्रदेश का कभी विकास नहीं हो सकता। सपा नेताओं ने इसी तरह की बयानबाजी और नाराजगी अमर सिंह को सपा में लाने और राज्यसभा में भेजने के दौरान की गई। बेनी प्रसाद वर्मा को लेकर यही सियासी नाटक खेला गया। यह बताना भी जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक विरोधियों को निपटाने का खेल एक समय में इंदिरा गांधी ने शुरु किया था। इसके बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी माफिय़ाओं का सहारा लिया। माफिया सरगना डी पी यादव को बढ़ाने में सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह ने पूरी मदद की थी। हालत तो यही है कि जिलों में आपराधिक वारदातों को अंजाम देने वालों को सपा नेताओं का संरक्षण मिला हुआ है।
अखिलेश के बयान भी ऐसे आ रहे हैं कि जैसे वास्तव में उन्होंने खुद फैसले लेने शुरु कर दिए हैं। माफिया सरगना की पार्टी का पहले एक चाचा सपा में विलय कराते हैं और भतीजा विलय कराने में भूमिका निभाने वाले मंत्री को सरकार से बर्खास्त कर देते हैं। सच तो यही सामने आया है कि बड़ी सोची समझी रणनीति के तहत कौमी एकता दल का सपा में विलय कराया गया। उत्तर प्रदेश सपा के प्रभारी शिवपाल यादव ने कौमी एकता दल का विलय कराया। अखिलेश ने सफाई दी कि विलय बिना उनकी जानकारी हुआ। क्या ऐसा हो सकता है कि मुख्यमंत्री जो प्रदेश सपा के अध्यक्ष भी हैं, उन्हें उनकी पार्टी में दूसरी पार्टी के विलय की जानकारी न हो। यह कोई पहली नौटंकी नहीं है। नौटंकी तो बहुत पहले से जारी है। इससे पहले इसी तरह की नौटंकी 2012 में भी हुई थी। तब अतीक अहमद को सपा में शामिल किया गया। फिर अखिलेश यादव ने उन्हें पार्टी से निकालने की घोषणा की। उस समय भी अखिलेश ने कहा था कि अतीक को चाचा लेकर आये थे, लेकिन मैंने निकाल दिया। अब अतीक अहमद सपा में कैसे हैं। अब जनता को ये बताने की ज़रूरत नहीं है कि आगे क्या-क्या नौटंकी होने वाली है। ये देश के सबसे बड़े राज्य का चुनाव है। और जब देश में परिवारवाद की राजनीति से प्रेरित दल के आपस के परिवार में फूट-फुटौव्वल हो तो समझ जाइए कि ये परिवारवाद की नींव ऐसे तैयार नहीं हुई है, इसे रोज़ प्रतिदिन इस परिवार के हर सदस्य ने झूठ और अफवाह से हर कदम पर सींचकर इसके (परिवारवाद की राजनीति के) जड़ और जद को यहां तक पहुंचाया है। लेकिन जनता अब समझ गई है।
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